ग़ज़ल
दिल जला के हसे वो महफ़िल न हो ।
जो मिले ना कभी वो मंजिल न हो ।
ये हसीं, ये नज़ाकत,ये सादगी,
कौन है देखके जो पागल न हो ।
ज़ख़्म की फिर वही तूं कर ना दवा,
ए नदां’ फिर कहीं वो मुशिकल न हो ।
तोड़ दूं एक घड़ी में अपने असूल,
हर घड़ी में अगर तूं शामिल न हो ।
फिर दुआ में दुआ मेरी काट दी,
फिर सुना है इसे कुछ हासिल न हो ।
छोड़ दें आपका ये दर साकीया,
ना समझ दिल नदां’ जो जाहिल न हो ।
"चौहान"
दिल जला के हसे वो महफ़िल न हो ।
जो मिले ना कभी वो मंजिल न हो ।
ये हसीं, ये नज़ाकत,ये सादगी,
कौन है देखके जो पागल न हो ।
ज़ख़्म की फिर वही तूं कर ना दवा,
ए नदां’ फिर कहीं वो मुशिकल न हो ।
तोड़ दूं एक घड़ी में अपने असूल,
हर घड़ी में अगर तूं शामिल न हो ।
फिर दुआ में दुआ मेरी काट दी,
फिर सुना है इसे कुछ हासिल न हो ।
छोड़ दें आपका ये दर साकीया,
ना समझ दिल नदां’ जो जाहिल न हो ।
"चौहान"
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